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01:21, 30 सितम्बर 2009 '''आस्था -२'''<br />
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है<br />
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है<br />
कैसे दर्द नें तराश कर बुत बना दिया हमें<br />
और तनहाई हमसे लिपट कर<br />
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें को तत्पर है<br />
पत्थर फिर बोलेंगे<br />
ये कैसी आस्था?<br />