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|रचनाकार=बशीर बद्र
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अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल के की पलकें सँवार लूँमेरा लफ़्ज़ -लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ
मैं तमाम दिन का थका हुआ , तू तमाम शब का जगा हुआज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर , तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
अगर आसमाँ की नुमाइशों में मुझे भी इज़्न-ए-क़याम <ref>रुकने की इज़ाज़त</ref> हो
तो मैं मोतियों की दुकान से तेरी बालियाँ तेरे हार लूँ
कई अजनबी तेरी राह के मेरे पास से यूँ गुज़र गये
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई तेरा नाम लेके पुकार लूँ
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