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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
}}
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<poem>
फिर ‘आरजू’ को दर से उठा, पहले यह बता।
आखिर ग़रीब जाये कहाँ और कहाँ रहे॥
--- --- ---
था शौके़दीद ताब-ए-आदाबे-बज़्मेनाज़।
यानी बचा-बचा के नज़र देखते रहे॥
अहले-क़फ़स का ख़ौफ़ज़दा शौक़ क्या कहूँ?
सूएचमन समेट के पर देखते रहे॥
</poem>
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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फिर ‘आरजू’ को दर से उठा, पहले यह बता।
आखिर ग़रीब जाये कहाँ और कहाँ रहे॥
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था शौके़दीद ताब-ए-आदाबे-बज़्मेनाज़।
यानी बचा-बचा के नज़र देखते रहे॥
अहले-क़फ़स का ख़ौफ़ज़दा शौक़ क्या कहूँ?
सूएचमन समेट के पर देखते रहे॥
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