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पलाश / नरेन्द्र शर्मा

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आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।<br />
कोंपलें लगीं, जो लगीं नित्य बढ़नें, बढ़ती ज्यों चन्द्रकला॥<br />
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चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।<br />
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई॥<br />
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पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके।<br />
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके॥<br />
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सूखी थीं नसें, बहा उनमें फिर बूँद-बूँद कर नया खून।<br />
भर गया उजाला ड़ालों में खिल उठे नये जीवन-प्रसून॥<br />
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अब हुई सुबह, चमकी कलगी, दमके मखमली लाल शोले।<br />
फूले टेसू-बस इतना ही समझे पर देहाती भोले॥<br />
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लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश।<br />
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश॥<br />
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लग गयी आग; बन में पलाश, नभ में पलाश, भू पर पलाश।<br />
लो, चली फाग; हो गयी हवा भी रंगभरी छू कर पलाश॥<br />
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आते यों, आएँगे फिर भी वन में मधुऋतु-पतझार कई।<br />
मरकत-प्रवाल की छाया में होगी सब दिन गुंजार नयी॥<br />
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