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Kavita Kosh से
ढीले हो जायें ये सारे बन्धन,
होये सहज चेतना लुप्त,--
भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे अचेतन।भूलूँ मैं कविता के छन्द,अगर कहीं से आये सुर-संगीत--अगर बजाये तू ही बैठ बगल में कोई तारतो कानों तक आते ही रुक जाये उनकी झंकार;
भूलूँ मैं अपने मन को भी
तुझको-अपने प्रियजन को भी!
हँसती हुई, दशा पर मेरी प्रिय अपना मुख मोड़,
जायेगी ज्यों-का-त्यों मुझको यहाँ अकेला छोड़!
इतना तो कह दे--सुख या दुख भर लेगी
जब इस नद से कभी नई नय्या अपनी खेयेगी?
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