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::धूलि-धूसरित, सदा निष्काम!
उग्र! लपट यह लू की है या शूल-करोगे बिद्ध
::उसे जो करता हो आराम!बताओ, यह भी कोई रीति? छोड़ घर-द्वार,जगाते हो लोगों में भीति,--तीव्र संस्कार!--::या निष्ठुर पीड़न से तुम नव जीवन::भर देते हो, बरसाते हैं तब घन!
(३)
तेजःपुंज! तपस्या की यह ज्योति--प्रलय साकार;
::उगलते आग धरा आकाश;
पड़ा चिता पर जलता मृत गत वर्ष प्रसिद्ध असार,
::प्रकृति होती है देख निराश!
सुरधुनी में रोदन-ध्वनि दीन,--विकल उच्छ्वास,
दिग्वधू की पिक-वाणी क्षीण--दिगन्त उदास;
::देखा जहाँ वहीं है ज्योति तुम्हारी,
::सिद्ध! काँपती है यह माया सारी।
(४)
शाम हो गई, फैलाओ वह पीत गेरुआ वस्त्र,
::रजोगुण का वह अनुपम राग,
कर्मयोग की विमल पताका और मोह का अस्त्र,
::सत्य जीवन के फल का--त्याग॥
मृत्यु में, तृष्णा में अभिराम एक उपदेश,
कर्ममय, जटिल, तृप्त, निष्काम; देव, निश्शेष!
::तुम हो वज्र-कठोर किन्तु देवव्रत,
होता है संसार अतः मस्तक नत।++
 
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++महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ के ’बैशाख’ से
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