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बढ़ई और चिड़िया / केदारनाथ सिंह

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=केदारनाथ सिंह}}<poem>वह लकड़ी चीर रहा था<br /><br />
कई रातों तक
जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था<br />और वह चीर रहा था<br /><br />उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद<br />और जड़ों में भट्_क भटक जाती थी<br />कई बार एक चिड़िया के खोंते से<br />टकरा जाती थी उसकी आरी<br /><br />उसे लकड़ी में<br />गिलहरी के पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी<br />एक गुर्राहट थी<br />एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अंदर<br />एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था<br /><br />उसकी आरी हर बार<br /> चिड़िया के दाने को<br />लकड़ी के कटते हुए रेशों से खींच कर<br />बाहर लाती थी<br />और दाना हर बार उसके दाँतों से छूट कर<br /> गायब हो जाता था<br /><br />वह चीर रहा था<br />और दुनियाँ<br />दोनों तरफ़<br />चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी<br /><br />दाना बाहर नहीं था<br />इस लिये लकड़ी के अंदर ज़रूर कहीं होगा<br />यह चिड़िया ला का ख़्याल था<br /><br />वह चीर रहा था<br />और चिड़िया खुद लकड़ी के अंदर<br />कहीं थी<br />और चीख रही थी।<br /poem>
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