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|रचनाकार=अटल बिहारी वाजपेयी
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हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|
हरी हरी दूब पर<br>क्काँयर की कोख से ओस फूटा बाल सूर्य, जब पूरब की बूंदे<br>गोद में अभी थीपाँव फैलाने लगा,<br>अभी नहीं हैं|<br>तो मेरी बगीची का ऐसी खुशियाँ<br>पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा, जो हमेशा हमारा साथ दें<br>मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ कभी नहीं थीया उसके ताप से भाप बनी,<br>कहीं नहीं हैं|<br><br>ओस की बुँदों को ढूंढूँ?
क्काँयर की कोख से<br>फूटा बाल सूर्य,<br>एक सत्य है जब पूरब की गोद में<br>पाँव फैलाने लगा,<br>जिसे झुठलाया नहीं जा सकता मगर ओस भी तो मेरी बगीची का<br>एक सच्चाई है पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,<br>यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है क्यों न मैं उगते सूर्य क्षण क्षण को नमस्कार करूँ<br>जिऊँ? या उसके ताप से भाप बनी,<br>ओस की बुँदों कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को ढूंढूँपिऊँ?<br><br>
सूर्य एक सत्य है<br>जिसे झुठलाया नहीं जा सकता<br>मगर ओस भी तो एक सच्चाई है<br>यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है<br>क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?<br>कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?<br><br> सूर्य तो फिर भी उगेगा,<br>धूप तो फिर भी खिलेगी,<br>लेकिन मेरी बगीची की<br>हरी-हरी दूब पर,<br>ओस की बूंद<br>
हर मौसम में नहीं मिलेगी|
</poem>
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