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घंटा / सुमित्रानंदन पंत

20 bytes removed, 19:17, 12 अक्टूबर 2009
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}}
{{KKCatKavita}}<poem>नभ की है उस नीली चुप्पी पर<br>घंटा है एक टंगा सुन्दर,<br>जो घडी घडी मन के भीतर<br>कुछ कहता रहता बज बज कर।<br>परियों के बच्चों से प्रियतर,<br>फैला कोमल ध्वनियों के पर<br>कानों के भीतर उतर उतर<br>घोंसला बनाते उसके स्वर।<br>भरते वे मन में मधुर रोर<br>"जागो रे जागो, काम चोर!<br>डूबे प्रकाश में दिशा छोर<br>अब हुआ भोर, अब हुआ भोर!"<br>"आई सोने की नई प्रात<br>कुछ नया काम हो, नई बात,<br>तुम रहो स्वच्छ मन, स्वच्छ गात,<br>निद्रा छोडो, रे गई, रात! <br><br/poem>
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