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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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<poem>
ओ रभाती नदियों,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है!
ओ रभाती नदियों,<br>फेन-गुच्छ बेसुध<br>लहरों की पूँछ उठाए कहाँ भागी जाती हो?<br>वंशी-रव<br>तुम्हारे ही भीतर है!<br><br>दौड़ती नदियो,
ओइस पार उस पार भी देखो, फेन-गुच्छ<br>लहरों की पूँछ उठाए<br>जहाँ फूलों के कूल दौड़ती नदियो,<br><br>सुनहरे धान से खेत हैं।
इस पार उस पार भी देखो,कल-<br>कल छल-छल अपनी ही विरह व्यथा जहाँ फूलों के कूल<br>प्रीति कथा कहती सुनहरे धान से खेत हैं।<br><br>मत चली जाओ!
कल-कल छल-छल<br>अपनी ही विरह व्यथा<br>प्रीति कथा कहती <br>मत चली जाओ!<br><br> सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं<br>वह तो गतिमय स्त्रोत की तरह<br/poem>
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