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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
}}{{KKCatKavita}}<poem>आओ, अपने मन को टोवें!
व्यर्थ देह के सँग मन की भी
निर्धनता का बोझ न ढोवें।
नवोन्मेष जन-भू जीवन में,
राग द्वेष के, प्रकृति विकृति के
युग युग के घावों को धोवें!</poem>
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