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{{KKRachna
|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
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<poem>
खादी के धागे धागे में
अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा
अन्यायी का अपमान भरा;
खादी के धागे धागे रेशे रेशे में<br>अपनेपन अपने भाई का अभिमान प्यार भरा,<br>माता माँ–बहनों का इसमें मान सत्कार भरा<br>अन्यायी बच्चों का अपमान मधुर दुलार भरा;<br><br>
खादी के रेशे रेशे में<br>की रजत चंद्रिका जबअपने भाई का प्यार भराआकर तन पर मुसकाती है,<br>माँ–बहनों का सत्कार भरा<br>तब नवजीवन की नई ज्योतिबच्चों का मधुर दुलार भराअन्तस्तल में जग जाती है;<br><br>
खादी से दीन विपन्नों की रजत चंद्रिका जब<br>आकर तन पर मुसकाती उत्तप्त उसास निकलती है,<br>तब नवजीवन जिससे मानव क्या पत्थर की नई ज्योति<br>अन्तस्तल में जग जाती भी छाती कड़ी पिघलती है;<br><br>
खादी से दीन विपन्नों की<br>में कितने ही दलितों केउत्तप्त उसास निकलती हैदग्य हृदय की दाह छिपी,<br>जिससे मानव क्या पत्थर कितनों की<br>कसक कराह छिपीभी छाती कड़ी पिघलती है;<br><br>कितनों की आहत आह छिपी!
खादी में कितने ही दलितों के<br>नंगोंदग्य हृदय भिखमंगों की दाह है आस छिपी,<br>कितनों की कसक कराह इसमें भूख छिपी<br>कितनों की आहत आह इसमें प्यास छिपी!<br><br>
खादी में कितने ही नंगों<br>तो कोई लड़ने काभिखमंगों की है आस छिपीजोशीला रणगान नहीं,<br>कितनों की इसमें भूख छिपी<br>खादी है तीर कमान नहींकितनों की इसमें प्यास छिपी!<br><br>खादी है खड्ग कृपाण नहीं;