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हिमालय / सोहनलाल द्विवेदी

60 bytes removed, 04:36, 17 अक्टूबर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
}} {{KKCatKavita}}<poem>युग युग से है अपने पथ पर<br>देखो कैसा खड़ा हिमालय!<br>डिगता कभी न अपने प्रण से<br>रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!<br><br>
जो जो भी बाधायें आईं<br>उन सब से ही लड़ा हिमालय,<br>इसीलिए तो दुनिया भर में<br>हुआ सभी से बड़ा हिमालय!<br><br>
अगर न करता काम कभी कुछ<br>रहता हरदम पड़ा हिमालय<br>तो भारत के शीश चमकता<br>नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!<br><br>
खड़ा हिमालय बता रहा है<br>डरो न आँधी पानी में,<br>खड़े रहो अपने पथ पर<br>सब कठिनाई तूफानी में!<br><br>
डिगो न अपने प्रण से तो ––<br>सब कुछ पा सकते हो प्यारे!<br>तुम भी ऊँचे हो सकते हो<br>छू सकते नभ के तारे!!<br><br>
अचल रहा जो अपने पथ पर<br>लाख मुसीबत आने में,<br>मिली सफलता जग में उसको<br>जीने में मर जाने में! <br><br/poem>
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