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<font size=3 color=olive>'''साकेत'''</font><br><br>
'''राम, तुम्हारा वृत्त चरित स्वयं ही काव्य है।'''<br>'''कोई कवि बन जाएजाय, सहज संभाव्य है। '''
लेखक: श्री मैथिलीशरण गुप्त <br>
== समर्पण ==
<poem>
पितः, आज उसको हुए अष्टाविंशति वर्ष,
दीपावली - प्रकाश में जब तुम गए सहर्ष।
भूल गए बहु दुख-सुख, निरानंद-आनंद;
शैशव में तुमसे सुने याद रहे ये छंद -
स्वयं तुम्हारा वह कथन भूला नहीं ललाम-"हम चाकर रघुवर केवहां कल्पना भी सफल, पटौ लिखौ दरबार;<br>जहां हमारे राम।"अब तुलसी का होहिंगे नर तुमने इस जन के मनसबदारलिए क्या क्या किया न हाय!बना तुम्हारी तृप्ति का मुझसे कौन उपाय?<br>तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज;<br>तुम दयालु थे, दे गए कविता का वरदान।उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।<br>उसके फल का पिंड यह लो निज प्रभु गुणगान।बनें सो रघुवर सों बनेंआज श्राद्ध के दिन तुम्हें, कै बिगरे भरपूर;<br>तुलसी बनें जो और सोंश्रद्धा-भक्ति-समेत, ता बनिबे में घूर।<br>चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु;<br>मेरे कुल की बानि है स्वांग बूंद सों नेहु।" <br><br>अर्पण करता हूं यही निज कवि-धन 'साकेत'।
परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्, धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।<br>