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:::::अनुचर-
दीपावली 1988:::::मैथिलीशरण<poem>दीपावली 1988
 "परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृतम्, धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।<br>" "इदं पवित्रं पापघ्नं पुण्य वेदैश्च सम्मितम् यः पठेद्रामचरितं सर्वपापैः प्रमुच्यते।<br>" "त्रेतायां वर्त्तमानायां कालः कृतसमोsभवत्, रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूत सुखावहे।<br>" "निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत्, अन्वागादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम्।<br>" "कल्पभेद हरि चरित सुहाए, भांति अनेक मुनीसन गाए।<br>" "हरि अनंत, हरि कथा अनंता; कहहिं, सुनहिं, समुझहिं स्रुति-संता।<br>" "रामचरित जे सुनत अघाहीं, रस विसेष जाना तिन्ह नाहीं।<br>" "भरि लोचन विलोक अवधेसा, तब सुनिहों निरगुन उपदेसा।<br><br>"
आचार्य पूज्य द्विवेदीजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है। वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार, आप लोगों के समझ खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है।-
''करते तुलसीदास भी कैसे मानस-नाद?-''<br>''महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद। ''<br>
विज्ञवर बार्हस्पत्यजी महोदय ने आरंभ से ही अपनी मार्मिक सम्मतियों से इस विषय में मुझे कृतार्थ किया है। अपनी शक्ति के अनुसार उनसे जितना लाभ मैं उठा सका, उसी को अपना सौभाग्य मानता हूं।
समर्थ सहायकों को पाकर भी अपने दोषों के लिए मैं उनकी ओट नहीं ले सकता। किसी की सहायता से लाभ उठा ले जाने में भी तो एक क्षमता चाहिए। अपने मन के अनुकूल होते हुए भी कोई कोई बात कहकर भी मैं नहीं कह सका। जैसे नवम सर्ग में ऊर्मिला का चित्रकूट-संबंधी यह संस्मरण-
''मंझली मां से मिल गई क्षमा तुम्हें क्या नाथ?''<br>''पीठ ठोककर ही प्रिये, मानें, मां के हाथ।''<br>
परंतु इसी के साथ ऐसा भी प्रसंग आया है कि मुझे स्वयं अपने मन के प्रतिकूल ऊर्मिला का यह कथन लिखना पड़ा है-
यों तो "साकेत" दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था; परंतु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी यह अधूरा है। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था कि मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही "साकेत" की समाप्ति हो। परंतु जब ऐसा नहीं हो सका, तब ऊर्मिला की निम्नोक्त आशा-निराशामयी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाए रखना ही मुझे उचित जान पड़ता है-
''कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी है,''<br>''कोई हताश क्यों हो, आती सबती समान वारी है। ''<br>
ध्न्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुदल रात साथ में जिसके, दिन और रात दोनों होते हैं हाय! हाथ में किसके?
- मैथिलीशरण गुप्त 1988
''जय देवमंदिर- देहली ::सम-भाव से जिस पर चढ़ी,-<br>-::::नृप-हेममुद्रा और रंकवराटिका।<br>रंक-वराटिका।मुनि-सत्य-सौरभ की कली- ::कवि-कल्पना जिसमें बढ़ी, <br>::::फूले-फले साहित्य की वह वाटिका।''<br><br>
राम, तुम मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूंहूँ, ईश्वर क्षमा करे;
तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे।
'''मंगलाचरण'''<br><br>
जयत कुमार-अभियोग-गिरा गौरी-प्रति, ::स - गण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं-<br>"देखो अंब, ये हेरंब मानस के तीर पर ::तुंदिल शरीर एक ऊधम मचाते हैं।<br>गोद भरे मोदक धरे हैं, सविनोद उन्हें ::सूंड़ से उठाकर मुझे देने को दिखाते हैं,<br>देते नहीं, कंदुक-सा ऊपर उछालते हैं, ::ऊपर ही झेलकरझेल कर, खेल कर खाते हैं!" <br>
'''श्रीगणेशायनमः'''<br><br>
[[साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ १]]<br><br>
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