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:हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।<br><br>
::::श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से<br>:::::योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।<br>::::देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही<br>:::::श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।<br>::::करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,<br>:::::उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,<br>::::"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"<br>:::::चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।<br><br>
"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,<br>
:जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?<br><br>
:::"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?<br>::::ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?<br>:::कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?<br>::::लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?<br>:::और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर<br>::::नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?<br>:::कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?<br>::::उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?<br><br>
"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,<br>
:भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।<br><br>
:::"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,<br>::::साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;<br>:::उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और<br>::::पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;<br>:::और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,<br>::::बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;<br>:::सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,<br>::::सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।<br><br>
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