|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
[[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4|अगला भाग >>]]
न्यायोचित अधिकार माँगने<br>
जीत, या कि खुद मरके।<br><br>
::किसने कहा, पाप है समुचित<br>::सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?<br>::उठा न्याय क खड्ग समर में<br>::अभय मारना-मरना ?<br><br>
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल<br>
मानव की कदराई।<br><br>
::हिंसा का आघात तपस्या ने<br>::कब, कहाँ सहा है ?<br>::देवों का दल सदा दानवों<br>::से हारता रहा है।<br><br>
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको<br>
फिर आये क्यों वन से?<br><br>
::पिया भीम ने विष, लाक्षागृह<br>::जला, हुए वनवासी,<br>::केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख<br>::कहलायी दासी<br><br>
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,<br>
कहो, कहाँ कब हारा?<br><br>
::क्षमाशील हो रिपु-समक्ष<br>::तुम हुए विनत जितना ही,<br>::दुष्ट कौरवों ने तुमको<br>::कायर समझा उतना ही।<br><br>
अत्याचार सहन करने का<br>
कोमल होकर खोता है।<br><br>
::क्षमा शोभती उस भुजंग को,<br>::जिसके पास गरल हो।<br>::उसको क्या, जो दन्तहीन,<br>::विषरहित, विनीत, सरल हो ?<br><br>
तीन दिवस तक पन्थ माँगते<br>
अनुनय के प्यारे-प्यारे।<br><br>
::उत्तर में जब एक नाद भी<br>::उठा नहीं सागर से,<br>::उठी अधीर धधक पौरुष की<br>::आग राम के शर से।<br><br>
सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'<br>
बँधा मूढ बन्धन में।<br><br>
::सच पूछो, तो शर में ही<br>::बसती है दीप्ति विनय की,<br>::सन्धि-वचन संपूज्य उसी का<br>::जिसमें शक्ति विजय की।<br><br>
सहनशीलता, क्षमा, दया को<br>
पीछे जब जगमग है।<br><br>
::जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,<br>::क्षमा वहाँ निष्फल है।<br>::गरल-घूँट पी जाने का<br>::मिस है, वाणी का छल है।<br><br>
फलक क्षमा का ओढ छिपाते<br>
नर की पौरुष-निर्भरता ?<br><br>
::वे क्या जानें नर में वह क्या<br>::असहनशील अनल है,<br>::जो लगते ही स्पर्श हृदय से<br>::सिर तक उठता बल है? <br><br> [[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 4|अगला भाग >>]]