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|रचनाकार=सोम ठाकुर
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<poem>
लौट आओे आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको
नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है।
मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है।
मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो?
लौट आओे आओ प्राण! पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है।
रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी
बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो
लौट आओे आओ मानिनी! है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है।
मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा?
यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको
लौट आओे आओ बुझ रहे इस दीप की सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है।
दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा,
आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा
हो न जाए आंख से ओेझल ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, सतरंगी श्रिंगार की सौगंध तुम को
अनमना दपर्ण निमंत्रण दे रहा है।