मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। <br>
विरह के रंगीन क्षण ले,<br>
अश्रु के कुछ शेष कण ले,<br>
खोजने फिर शिथिल पग,<br>
निश्वास-दूत निकल चुका है!<br>
चल पलक है निर्निमेषी,<br>
कल्प पल सब तिविरवेषी,<br>
चेतना का स्वर्ण, जलती<br>
वेदना में गल चुका है!<br>
झर चुके तारक-कुसुम जब,<br>
रश्मियों के रजत-पल्लव,<br>
सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब,<br>
पार से, अज्ञात वासन्ती,<br>
दिवस-रथ चल चुका है।है!<br>
खोल कर जो दीप के दृग,<br>
कह गया 'तम में बढा पग'<br>
न आ कहता वही,<br>
'सो, याम अंतिम ढल चुका है'!<br>
अन्तहीन विभावरी है,<br>
पास अंगारक-तरी है,<br>
तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है!<br><br>
शिथिल कर के से सुभग सुधि-<br>
पतवार आज बिछल चुका है!<br>
अब कहो सन्देश है क्या?<br>
और ज्वाल विशेष है क्या?<br>
अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या?<br><br>
एक इंगित के लिये<br>
शत बार प्राण मचल चुका है!<br><br>
मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। <br>