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निशा कोकी, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बिछाती थी सपनों के जाल
मुझे मधुमय पीडा़ में बोर;
गये तब से कितने युग बीत
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान।
भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारम्बार,
तुम्हें तब आता था करुणेश!
उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!
नहीं अब गाया जाता देव!
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला लो यह अस्फुट झंकार!
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