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हम भगतनि के भगत हमारे / सूरदास

1 byte removed, 10:59, 24 अक्टूबर 2009
|रचनाकार=सूरदास
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[[Category:पद]]
राग घनाक्षरी
<poem>हम भगतनि के भगत हमारे।<br>सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥<br>भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।<br>जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुड़ाऊं॥<br>जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।<br>देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥<br>जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।<br>सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥<br><br/poem
इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे़ ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगड़ने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौड़कर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पड़ती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पड़ता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को)
नष्ट कर देता हूं।
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