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यह दंतुरित मुसकान / नागार्जुन

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|रचनाकार=नागार्जुन
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तुम्‍हारी {{KKCatKavita‎}}<Poem>तम्हारी यह दंतुरित मुसकानमुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
 धूली-धूसर तुम्‍हारे तुम्हारे ये गात... 
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
 परस पाकर तुम्‍हारी तुम्हारी ही प्राण, 
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
 
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
 
बाँस था कि बबूल?
 
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
 
देखते ही रहोगे अनिमेष!
 
थक गए हो?
 
आँख लूँ मैं फेर?
 क्‍या हुया क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार? यदि तुम्‍हारी तुम्हारी माँ न माध्‍यम माध्यम बनी होगी आज 
मैं न सकता देख
 
मैं न पाता जान
तम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
तुम्‍हारी यह दंतुरित मुसकान
 
धन्‍य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्‍य!
 
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्‍य!
 
इस अतिथि से प्रिय क्‍या रहा तुम्‍हारा संपर्क
धन्य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
 
देखते तुम इधर कनखी मार
 
और होतीं जब कि आँखे चार
 तब तुम्‍हारी तुम्हारी दंतुरित मुसकानमुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!
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