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और ही राग / अजित कुमार

18 bytes added, 06:07, 1 नवम्बर 2009
|रचनाकार=अजित कुमार
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टेबिल टाप पर तुम्हारी उँगलियाँ
 
पड़ी हुई थीं निर्जीव
 
और मैं प्रतीक्षा में थी दम साधे
 
कि अब वे हरकत करेंगी-
 
धिनक धिनक धिन्... धिनक धिन्...
 
रच दोगे तुम एक अनोखा संगीत
 
जिसकी लय पर मैं थिरकने लगूंगी
 
धिनक धिनक्... धिन्... ता...
 
पर वे थीं कि हिले-डुले बिना
 
वैसी ही थमी रहीं उसी जगह अचल
 
गहरे मौन का या निष्प्रभ जीवन का
 
एक और ही राग अलापती हुईं
 
जिसमें डूबती–डूबती मैं जा पहुँची अतल में ।
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