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Kavita Kosh से
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
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चाँदनी चुप-चाप सारी रात
सूने आँगन में
:::जाल रचती रही।
मेरी रूपहीन अभिलाषा
अधूरेपन की मद्धिम
:::आँच पर तँचती रही।
व्यथा मेरी अनकही
आनन्द की सम्भावना के
:::मनश्चित्रों से परचती रही।
:::रूप लेने से बचती रही।
</poem>