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सरोजिनी की काव्यमय कवि-सत्ता उनकी कहानियों को भी कविता में परिवर्तित कर देती है.. प्रस्तुत है उनकी ओडिशा साहित्य अकादेमी पुरस्कृत कहानी संग्रह 'अमृत प्रतीक्षा रे' में संकलित शीर्षक कहानी 'अमृत प्रतीक्षा' से कविता के कई अंश . इस कहानी का अंग्रेजी रूपांतरण 'वेटिंग फॉर मन्ना' शीर्षक से इप्सिता षडंगी ने किया , जो लेखिका के दूसरे अंग्रेजी कहानी-संग्रह 'वेटिंग फॉर मन्ना' ( ISBN: 978-81-906956) में शीर्षक कहानी के रूप में संकलित हुई है.

गर्भवती नारी को घेरकर वे तीन
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
मगर बंद करके सिंह-द्वार
सोया था वह महामहिम
चिरनिद्रा में मानो रूठकर
सोया हो बंद अंधेरी कोठरी के अंदर
एक अव्यक्त रूठापन
बढ रहा था तेजी से हृदय स्पंदन
नाप रहा था स्टेथो उसके हृदय की धडकन
देखो !
अचानक पहुँच जाता था पारा
रफ़्तार 140 धड़कन प्रतिमिनिट
सीमातीत ,
प्रतीक्षारत वे तीन, कर रहे थे अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
बंद थे जैसे विचित्र कैद में
प्रतीक्षा की थकावट ने,
कर दी उनके
नींदों में भी नींदहीनता
सपनीली नींदो में स्वप्नहीनता
ना वे जमीन पर पैर बढा सकते थे
ना वे, गगन में पंछी बन उड सकते थे।
प्रतीक्षारत वे तीन,
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
कि कब
निबुज कोठरी का दरवाजा खोल
मायावी जठर की कैद तोड
सुबह की धूप की तरह
हँसते-हँसते वह कहेगा
“लो, देखो मैं आ गया हूँ।
भूल गया मैं सारा गुस्सा,
सारा रुठापन,
विगत महीनों की असह्य यंत्रणा”
कब वह घड़ी आएगी
जब खत्म होगी वह अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
कब होंगे वे सब मुक्त बंद कैद से,
जब होगा वह महामहिम जठर मुक्त ?
कहीं ऐसा न हो
गर्भवती नारी के साथ-साथ
उनको भी लेना होगा पुनर्जन्म
एक बार फिर नया जन्म


xxxxxxx


कैलेण्डर के सभी पन्नों को
फाड़कर, मैं खड़ी हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
मेरे सामने हो तुम
जागरण में
नींद में
सुख में
दुःख में
मगर भीषण ताप से
पसीना बह जा रहा है
इस शरीर से
दिल में जाग उठी
एक प्रचंड प्यास
मेरे सामने
वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सन क्लीनिक, कटक
भारत, पृथ्वी, ग्रह, तारा, आकाश
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सिर्फ तुम हो
और मैं हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
पर भीषण ताप से
पसीना बहा जा रहा है
इस शरीर से
दिल में जाग उठी है
एक प्रचंड प्यास।


xxxxxxx


सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिकी और
रसायनिकी के सूत्रों की तरह अकवितामय
पूछो, प्रसव-पीडा से छटपटाती उस प्रसूता को,
पूछो, दूरबीन से झाँक रहे खगोलशास्त्र के उन वैज्ञानिकों को,
पूछो, एपीस्टीमोलॉजी, ब्रीच, कन्ट्रेक्शन, सर्विक्स
प्लेसेन्टा को लेकर व्यस्त डॉक्टरों से उस कविता का पता।
इतना होने के बावजूद
गर्भमुक्त प्रसूता की आँखों के किसी कोने में आँसू
और होठों पर थिरकती संतृप्ति भरी हँसी।
कविता पैदा होती है रात के आकाश में
कविता उपजती है पहले सृजन
नवजात शिशु के हँसने और रोने में।
कविता क्या होती है ?
पूछो, रसायन प्रयोगशाला में काम कर रहे
अनभिज्ञ नवागत छात्रों को
पूछो, गर्भस्थ शिशु का पेट में पहले प्रहार
से भयभीत और उल्लासित माँ को
पूछो, प्लेनेटोरियम में टिकट बेचते
लड़कों से,
उस कविता का पता।
प्रज्ञा-चेतना से बाहर निकल कर
देखो, सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिक
मगर सृष्टि कवितामय।

( अनुवाद: दिनेश कुमार माली )