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|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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<poem>
अन्धकार था :
सब-कुछ जाना-
पहचाना था
हुआ कभी न गया हो, फिर भी
सब-कुछ की संयति थी,
संहति थी,
स्वीकृति थी।
अन्धकार था दिया जलाया : <br>सबअर्थहीन आकारों की यह अर्थहीनतर भीड़-कुछ जानानिरर्थकता का संकुल-<br>पहचाना था <br>हुआ कभी निर्जल पारावार न गया हो, फिर भी<br>सब-कुछ की संयति थी,<br>संहति थी,<br>कारों का स्वीकृति थी।<br><br>यह उमड़ा आया।
दिया जलाया :<br>अर्थहीन आकारों की यह <br>अर्थहीनतर भीड़-<br>निरर्थकता का संकुल-<br>निर्जल पारावार न-कारों का <br>यह उमड़ा आया।<br><br> कहाँ गया वह <br> जिस ने सब-कुछ को <br> ऋत के ढाँचे में बैठाया ?<br/poem>
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