भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निरस्त्र / अज्ञेय

25 bytes removed, 06:25, 2 नवम्बर 2009
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
कुहरा था,
 
सागर पर सन्नाटा था:
 
पंछी चुप थे।
 
महाराशि से कटा हुआ
 
थोड़ा-सा जल
 
बन्दी हो
 
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
 
निश्चल था—
 
पारदर्श।
 
 
प्रस्तर-चुम्बी
 
बहुरंगी
 
उद्भिज-समूह के बीच
 
मुझे सहसा दीखा
 
केंकड़ा एक:
 
आँखें ठण्डी
 
निष्प्रभ
 
निष्कौतूहल
 
निर्निमेष।
 
 
जाने
 
मुझ में कौतुक जागा
 
या उस प्रसृत सन्नाटे में
 
अपना रहस्य यों खोल
 
आँख-भर तक लेने का साहस;
 
मैंने पूछा: क्यों जी,
 
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
 
मैं करता हूँ प्यार किसी को—
 
तो चौंकोगे?
 
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
 
औचक?
 
 
उस उदासीन ने
 
सुना नहीं:
 
आँखों में
 
वही बुझा सूनापन जमा रहा।
 
ठण्डे नीले लोहू में
 
दौड़ी नहीं
 
सनसनी कोई।
 
 
पर अलक्ष्य गति से वह
 
कोई लीक पकड़
 
धीरे-धीरे
 
पत्थर की ओट
 
किसी कोटर में
 
सरक गया।
 
 
यों मैं
 
अपने रहस्य के साथ
 
रह गया
 
सन्नाटे से घिरा
 
अकेला
 
अप्रस्तुत
 
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र
 
निष्कवच,
 
वध्य।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits