भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।<br> जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥<br><br> कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।<br> अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥<br><br> काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।<br> इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥<br><br> बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।<br> सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥<br><br> अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।<br> प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥<br><br> प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।<br> जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<br><br> भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।<br> बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥<br><br> दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।<br> इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥<br><br> प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।<br> या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥<br><br> हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।<br> याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥
Anonymous user