|रचनाकार =मुनव्वर राना
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँमाँ से इस तरह लिपट जाऊंकि बच्चा हो जाऊँ
माँ कम-से इस कम बच्चों तरह लिपट जाऊं के होठों की हंसी की ख़ातिरऎसी मिट्टी में मिलाना कि बच्चा खिलौना हो जाऊंजाऊँ
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ
कम-से कम बच्चों चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं के है लेकिनक्या ज़रूरी है कि होठों हर बार की मैं अच्छा हंसी की ख़ातिरहो जाऊँ
ऎसी बेसबब मिट्टी इश्क़ में मिलाना मरना मुझे मंज़ूर नहींशमा तो चाह रही है कि खिलौना पतंगा हो जाऊंजाऊँ
सोचता हूं तो छलक उठती हैं मेरी आँखें तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊं चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन क्या ज़ुरूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊं बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊं शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊंजाऊँ</poem>