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कि हम नहीं रहेंगे / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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हमने
 
शिखरों पर जो प्यार किया
 
घाटियों में उसे याद करते रहे!
 
फिर तलहटियों में पछताया किए
 
कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!
 
 
पर जिस दिन सहसा आ निकले
 
सागर के किनारे—
 
ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
 
पलक की झपक-भर में पहचाना
 
कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—
 
यही तो प्रमाद करते रहे!
 
 
शिखर तो सभी अभी हैं,
 
घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;
 
तलहटियाँ तो और भी
 
नई बस्तियों में उभर आई हैं।
 
 
सभी कुछ तो बना है, रहेगा:
 
एक प्यार ही को क्या
 
नश्वर हम कहेंगे—
 
इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?
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