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यात्री / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! <br> वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, <br> मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, <br> देवता उनमें जो विराजें <br> परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों <br> ::::कराल हों, स्त्रैण हों, <br> अमूर्त्त हों <br> (या धूर्त हों) <br> किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में <br> धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा— <br> न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के) <br> न जुटा पाथेय कुछ— <br> मन्दिरों में न जा, न जा! <br> <br>
बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है, <br> चलता जा <br> मांग कि यात्रा लम्बी हो; <br> पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले; <br> परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले, <br> मांग की यात्रान्त न हो; <br> पथ पर ही भीतर से पकता <br> तू बाहर सहज गलता जा। <br> आज बोधि का धीमा स्वर सुना: <br> तीर्थों में न भी हो पानी <br> —या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता— <br> पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी: <br> कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही। <br> मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है? <br> तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही, <br> वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी, <br> ::::मूर्ति की भी अर्थवत्ता। <br> <br>
पग-पग पर तीर्थ है, <br> मन्दिर भी बहुतेरे हैं; <br> तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे <br> मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से, <br> हर पग से, हर साँस से <br> कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा, <br> पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी! <br/poem>
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