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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>यह एक और घर <br> पीछे छूट गया, <br> एक और भ्रम <br> जो जब तक मीठा था <br> टूट गया। <br> <br>
कोई अपना नहीं कि <br> केवल सब अपने हैं: <br> हैं बीच-बीच में अंतराल <br> जिन में हैं झीने जाल <br> मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले <br> पर सच में <br> सब सपने हैं। <br> <br>
पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है <br> या मत मानो तो वह भी सच्चा है। <br> यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी <br> सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी। <br> <br>
देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है: <br> हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत <br> दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में <br> फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत। <br> <br>
हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही। <br> पतवार? वही जो एकरूप है सब से— <br> इयत्ता का विराट्। <br> <br>
यों घर—जो पीछे छूटा था— <br> वह दूर पार फिर बनता है <br> यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य <br> लीक-लीक पथ के डोरों से <br> नया जाल फिर तनता है... <br> <br/poem>
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