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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>पुरबा बता दे, कहाँ की हवा है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
लहू जिसका पानी, है एसी जवानी
जो आँसू बिकेंगे, उन्ही में कहानी
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दिवानी
जो पत्थर कभी थे, वो हैं पानी पानी..
वो लहरें उठी थीं, भंवर बन गयी हैं
जो उस पार पहुँचे, वो नौका कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
बहुत मोड आये, तुम्ही मुड गये थे
जहाँ जोड पाये थे, तुम जुड गये थे
नमक जिसपे डाला, वो अंकुर नये थे
जो टूटे हैं, उन घोसलों में बये थे..
क्षितिज एक धोखा, झुके कैसे अंबर
चढे हौसला उसपे, जरिया कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
कभी सात पर्दों को आँधी हटा कर
काटने वाले हाँथों की चाँदी हटा कर
जो मुर्दे जिला दे वो, एसी दवा कर
कि हर एक आँखों को पारस छुवा कर
कोई दीप बुझता हुआ आग धर ले
सांस लेती रहें चिनगियाँ ये दुआ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
12.03.2007</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>पुरबा बता दे, कहाँ की हवा है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
लहू जिसका पानी, है एसी जवानी
जो आँसू बिकेंगे, उन्ही में कहानी
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दिवानी
जो पत्थर कभी थे, वो हैं पानी पानी..
वो लहरें उठी थीं, भंवर बन गयी हैं
जो उस पार पहुँचे, वो नौका कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
बहुत मोड आये, तुम्ही मुड गये थे
जहाँ जोड पाये थे, तुम जुड गये थे
नमक जिसपे डाला, वो अंकुर नये थे
जो टूटे हैं, उन घोसलों में बये थे..
क्षितिज एक धोखा, झुके कैसे अंबर
चढे हौसला उसपे, जरिया कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
कभी सात पर्दों को आँधी हटा कर
काटने वाले हाँथों की चाँदी हटा कर
जो मुर्दे जिला दे वो, एसी दवा कर
कि हर एक आँखों को पारस छुवा कर
कोई दीप बुझता हुआ आग धर ले
सांस लेती रहें चिनगियाँ ये दुआ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
12.03.2007</poem>