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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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{{KKCatKavita}}<poem> एक दिन रूक जाएगी जो लय <br> उसे अब और क्या सुनना? <br> व्यतिक्रम ही नियम हो तो <br> उसी की आग में से <br> बार-बार, बार-बार <br> मुझे अपने फूल हैं चुनना। <br> चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं। <br> तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने किया है प्यार? <br> तुम कभी रोना नहीं, मत <br> कभी सिर धुनना। <br> टूटता है जो उसी भी, हाँ, कहो संसार <br> पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार, <br> उस अनन्त, उदार को <br> कैसे सकोगे भूल— <br> उसे, जिस को वह चिता की आग <br> है, होगी, हुताशन— <br> जिसे कुछ भी, कभी, कुछ से नहीं सकता मार— <br> वही लो, वही रखो साज-सँवार— <br> वह कभी बुझने न वाला <br>
प्यार का अंगार!
<span style="font-size:14px">फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं० २०२२]</span>
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