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{{KKCatKavita}}<poem>मैं एक दरवाज़ा थी<br>मुझे जितना पीटा गया<br>मैं उतना ही खुलती गई।<br>अंदर आए आने वाले तो देखा–<br>चल रहा है एक वृहत्चक्र–<br>चक्की रुकती है तो चरखा चलता है<br>चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई<br>गरज यह कि चलता ही रहता है<br>अनवरत कुछ-कुछ !<br>... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू<br>तारे बुहारती हुई<br>बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–<br>सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो<br>एक टोकरी में जमा करती जाती है<br>मन की दुछत्ती पर। <br><br/poem>