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|रचनाकार=अमरनाथ श्रीवास्तव
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फांस जो छूती रगों को देखने में कुछ नहीं है
रह न पाया एक
 
सांचे से मिला आकार मेरा
 
स्वर्ण प्रतिमा जहां मेरी
 
है फंसा अंगार मेरा
 
आंख कह देती कहानी बांचने में कुछ नहीं है।
 
हैं हमें झूला झुलाते
 
सधे पलड़े के तराज़ू
 
माप से कम तौलते हैं
 
वाम ठहरे सधे बाज़ू
 
दांव पर सब कुछ लगा है देखने में कुछ नहीं है।
 
हर तरफ़ आंखें गड़ी हैं
ढूंढती मुस्कान मेरी
 
लाल कालीनें बिछाते
 
खो गयी पहचान मेरी
 
हर तरफ पहरे लगे हैं आंकने में कुछ नहीं है।
बोलने वाले चमकते
 
हो गयी मणिदीप भाषा
 
मैं अलंकृत क्या हुआ
 
मुझसे अलंकृत है निराशा
 
लोग जो उपहार लाये भांपने में कुछ नहीं है।
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