| रचनाकार=अमरनाथ श्रीवास्तव
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असगुन के उल्कापातों में
सारी रैन जागते बीती
जो दिन उजले चंदन चर्चित
उसके लिए उपस्थिति वर्जित
हुईं कोयला स्वर्ण गिन्नियाँ
कालिख हुई थैलियाँ अर्जित
असगुन के उल्कापातों में <br>तीते रहे निबौरी सपने सारी रैन जागते मधु में उम्र पागते बीती<br><br>
जो दिन उजले चंदन चर्चित<br>यह बेमेल संग की छाया उसके लिए उपस्थिति वर्जित<br>चमकाती है दुख की छाया हुईं कोयला स्वर्ण गिन्नियाँ<br>उतना ही बाँधे रखती है कालिख हुई थैलियाँ अर्जित<br><br>जितना ही खुलती है माया
तीते रहे निबौरी सपने<br>टाट लगे उखड़े मलमल को मधु में सारी उम्र पागते तागते बीती<br><br>
यह बेमेल संग की छाया<br>प्यासे पाषाणों का होकर चमकाती है दुख की छाया<br>लुप्त हो गया कोई निर्झर उतना ही बाँधे रखती है<br>उसके राग हुए वैरागी जितना ही खुलती है माया<br><br>जो ऐसी धारा पर निर्भर
टाट लगे उखड़े मलमल को<br>सारी उम्र तागते बीती<br><br> प्यासे पाषाणों का होकर<br>लुप्त हो गया कोई निर्झर<br>उसके राग हुए वैरागी<br>जो ऐसी धारा पर निर्भर<br><br> बंद बाँसुरी की सुरंग में<br>विह्वल सांस भागते बीती<br/poem>