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उफ़ुक़<ref>क्षितिज </ref> के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग
ज़मीं से ता-ब-फ़लक <ref> </ref> है बलन्द रात का नाम
यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़ <ref>चाव से झुकने वाला माथा </ref> नहीं संगे-आस्ताँ <ref>दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए) </ref>भी नहींरक़ीब <ref> </ref> जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंगहज़ार लब से जुनू जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना
दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
इक इन्तिहा <ref>समाप्ति,समापन </ref> है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा <ref>केवल शुभारम्भ के सौंदर्य के लिए </ref> के लिएबिछे हैं खा़र ख़ार कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल केख़मोशी मुह्र-ब-लब<ref> स्तब्ध,मौन,चुपी की मुहर लगवाए हुए </ref>है किसी सदा के लिए
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा<ref>गीत और स्वर </ref> के लिए
वो पहना शम्अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब <ref>सूर्य के प्रकाश </ref> के जाम
पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ<ref>आलोकित </ref> हैं आँसुओं के चिराग़
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
तमाम पैरहने-शब <ref>रात्रि के वस्त्रों </ref> में भर गए हैं शरार<ref>अंगारे</ref>
चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
लचक रही हैं कहीं शाखे़शाख़े-गुल की तलवारें
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
महक रहा रही है लबो-आरिज़ो-नज़र <ref>होंठों,गालों और आँखों </ref> की शराब
जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
नफ़स में निक़हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब<ref>इन्क़िलाब के पैग़ाम की ख़ुशबू </ref> लिए
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
सहर के दोशपे<ref>काँधा काँधे पर </ref> पे इक ताज़ा आफ़ताब लिए
</poem>
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