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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}
<poem>जंगल में जिन्हे बसना पड़ा है
देखा है मैंने उन्हें
उनके किये धरे का लाभ तो
दिक्कू ही उठाते हैं।
कछुए, साँप, मेंढक उनके आहार हैं
उनको शराब दे कर बदले में
दिक्कू बनिया साग भाजी, फल, मूल, मधु
मनमाने मोल पर लेता है।
आज भी ये मकान और दूकान की
पहेलियाँ समझ नहीं पाते।
लुटेरे इन्हें लूटते हैं
नेता भी बातों से इन को बहलाते हैं
यही लोकतंत्र है।
26.09.2002</poem>
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|रचनाकार=त्रिलोचन
}}
<poem>जंगल में जिन्हे बसना पड़ा है
देखा है मैंने उन्हें
उनके किये धरे का लाभ तो
दिक्कू ही उठाते हैं।
कछुए, साँप, मेंढक उनके आहार हैं
उनको शराब दे कर बदले में
दिक्कू बनिया साग भाजी, फल, मूल, मधु
मनमाने मोल पर लेता है।
आज भी ये मकान और दूकान की
पहेलियाँ समझ नहीं पाते।
लुटेरे इन्हें लूटते हैं
नेता भी बातों से इन को बहलाते हैं
यही लोकतंत्र है।
26.09.2002</poem>