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{{KKRachna
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
}} {{KKCatKavita}}<poem>ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग<br>बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही<br>उतरने और न ही कहीं अंदर<br>बैठने की जगह पाने की उम्मीद में<br><br>
बिना उम्मीद के इस सफ़र में <br>दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी<br>या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी<br>और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं<br>दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके<br>न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई<br><br>
कहीं सीट पर<br>बरसों पहले आयी कुछ महीनों की बहन भी है<br>जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफ़ेद दाढ़ीवाले<br>मंत्र बुदबुदाते बाबा भी<br><br>
न कोई नाम है न संख्या न रंग<br>सब एक दूसरे से बेख़बर हैं और बेसामान<br>न ट्रेन के रुकने का इंतज़ार है न किसी के आने का<br><br>
नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते<br>जूनू डुल्लो दूबी चिंकू<br>उस ट्रेन की किसी खिड़की से<br>
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?
</poem>
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