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|संग्रह=ठहरा हुआ एहसास / इला कुमार
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बरस बीते कि सरक गया था युग
मुस्काया नहीं था चांद खिड़कियों के पार
एक शरद भीनी रात
सहसा कौंधी किरणें दूर, पेड़ों के पार
लुभाती मुझे भरमाती कण-कण को
केले के पत्तों की ओट से झाँक गई
लुक-छिप ज्यों वार किया सहलाती मुझे
फैलाई नरम चादर नभ से अबर तक
पूछा चुपके से खिड़की की सलाखों के पार
"आओगी क्या हमारे साथ?"
पलटे बीते पन्ने युगों के सपने, बने अपने
तन-मन में संचित अमृत
बह चली मैं
लौट आई पहली छुअन मोगरे की
तभी
मुन्ने से बदली करवट
दबा मेरा आँचल नन्हे पाँवों में लिपट
पलकें झुका कहा मैंने" आऊंगी" अगली पूर्णिमा!"
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