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उलझन / महादेवी वर्मा

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अलि कैसे उनको पाऊँ?
:::जिसमें उनको कण कण में
:::ढूँढूँ पहिचान न पाऊँ।
सोते सागर की धड़कन--बन, लहरों की थपकी से;अपनी यह करुण कहानी,जिसमें उनको न सुनाऊँ।:::वे तारक बालाओं की,:::अपलक चितवन बन आते;:::जिसमें उनकी छाया भी,:::मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ।वे चुपके से मानस में,आ छिपते उच्छवासें बन;जिसमें उनको सांसो में,देखूँ पर रोक न पाऊँ।:::वे स्मृति बनकर मानस में,:::खटका करते हैं निशिदिन;:::उनकी इस निष्ठुरता को,:::जिसमें मैं भूल न जाऊँ।
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