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Kavita Kosh से
उसे कोई मलाल न था
मैं उसे सुनता ही रहा
मुझे याद आये अपनी कहानी के वे प्रसंग
जहाँ वह शिद्दत से मौजूद था
दिखाई देती थी बाहर की दुनिया
अक्षरों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक भाषा में ढालने का उसका काम
गिरफ्त ख़ामोशी की तकलीफ़देह थी
जब मैं उससे बाहर आया
मेरा भी कुछ जाता रहा है
जैसे थोड़ी बहुत मृत्यु मुझे भी आई है
अब उधर से गुज़रता नहीं देखता मैं
कवेलू वाला छप्पर