भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
हम क्रांतिकारी नहीं थे
हम सिर्फ अस्थिर थे
और इस अस्थिरता में कई बार
कुछ नाजुक मौक़ों पर
जो हमें कहीं से कहीं पहुंचा सकते थे
अराजक हो जाते थे
लोग जो क्रांति के बारे में किताबें पढ़ते रहते थे
हमें क्रांतिकारी मान लेते थे
जबकि हम क्रांतिकारी नहीं थे
हम सिर्फ अस्थिर थे
हम क्रांतिकारी नहीं थे<br>हम सिर्फ अस्थिर थे<br>बहुत ऊपर और इस अस्थिरता में कई बार<br>कुछ नाजुक मौक़ों पर <br>जो हमें कहीं से कहीं पहुंचा सकते थे<br>बहुत नीचे अराजक हो लगातार आते-जाते थे<br>लोग जो क्रांति के बारे में किताबें पढ़ते रहते थे<br>हमें क्रांतिकारी मान लेते थे<br>जबकि हम क्रांतिकारी नहीं तेज़ भागते थे<br>अपने आगे-आगे और कई बार हम सिर्फ अस्थिर पीछे छूट जाते थे<br><br>
हम बहुत ऊपर<br>और बहुत नीचे<br>लगातार आतेकई-जाते रहते थे<br>हम तेज़ भागते थे कई दिन अपने आगे-आगे<br>से पीछे और कई बार हम पीछे छूट जाते घिसटते रहते थे<br><br>
कई-कई दिन अपने से पीछे <br>कोई भी चीज़ हमें देर तक घिसटते रहते थे<br><br>आकर्षित नहीं करती थी
कोई भी चीज़ हमें देर तक <br>हम बहुत तेज़ी से आकर चिपकते थे आकर्षित नहीं करती थी<br><br>और अगले ही पल गालियां देते हुए अगली तरफ भाग लेते थे
हम बहुत तेज़ी से आकर चिपकते थे<br>ज्ञान हमें कन्विंस नहीं कर पाता था और अगले ही पल गालियां देते हुए<br>किताबें खुलने से पहले अगली तरफ भाग लेते थे<br><br>भुरभुरा जाती थीं
ज्ञान हम अपना दुख कह नहीं पाते थे क्योंकि वो हमें कन्विंस नहीं कर पाता झूठ लगता था<br>और किताबें खुलने से पहले <br>भुरभुरा जाती थीं<br><br>
हम अपना दुख कह सुख सह नहीं पाते थे<br>क्योंकि उसके लिए हमारे भीतर कोई जगह नहीं थी और वो हमें झूठ बहुत भारी लगता था<br><br>
हम अपना सुख सह नहीं पाते थे<br>क्योंकि उसके लिए हमारे भीतर कोई जगह नहीं थी<br>आस-पास बहुत सारी ठोस चीज़ें थीं और वो लेकिन हमें बहुत भारी लगता रहता था<br><br>किसी भी क्षण हम हवा होकर उनके बीच से निकल जाएंगे और फिर किसी के हाथ नहीं आएंगे
हमारे आस-पास हम बहुत सारी ठोस चीज़ें थीं<br>अकेले थे लेकिन और भीड़ में स्तब्ध खड़े रहते थे लोग हमें लगता रहता था<br>छूने से डरते थे किसी जैसे कि हम रेत का खम्भा हों हम रेत का खम्भा नहीं थे लेकिन लोहे की लाट भी क्षण नहीं थे हम हवा होकर उनके बीच सिर्फ ये नहीं समझ पाए थे कि भीड़ से निकल जाएंगे<br>बाहर रहते हुए भी भीड़ में कैसे रहा जाता है और फिर किसी के हाथ नहीं आएंगे<br>जबकि ज़्यादातर चीज़े इसी पर निर्भर थीं
हम बहुत अकेले थे<br>और भीड़ में स्तब्ध खड़े रहते थे<br>लोग कोई शिक्षा संस्थान हमें छूने से डरते थे<br>जैसे कि हम रेत का खम्भा हों<br>हम रेत का खम्भा चालाकी नहीं थे<br>सिखा पाया था लेकिन लोहे मार्च की लाट भी नहीं थे<br>गुनगुनी धूप हमें पागल कर देती थी और हम सिर्फ ये नहीं समझ पाए सबकुछ भूल जाते थे<br>कि भीड़ से बाहर रहते हुए भी भीड़ में कैसे रहा जाता है<br>जबकि ज़्यादातर चीज़े इसी पर निर्भर थीं<br><br>
कोई शिक्षा संस्थान हमें चालाकी नहीं सिखा पाया था<br>हम प्यार करना चाहते थे मार्च की गुनगुनी धूप हमें पागल लेकिन कर देती थी<br>नहीं पाते थे और हम सबकुछ भूल जाते लिंगभेद से परेशान थे<br><br> और संबंधभेद से भी
हम प्यार करना चाहते थे <br>समर्पित योनियां और आक्रामक शिश्न लेकिन कर नहीं पाते हमारी वासना की नैतिकता को कचौटते थे<br>और हम लिंगभेद से परेशान बलात्कार को अनंतकाल के लिए स्थगित कर देते थे <br>और संबंधभेद से भी<br><br>
समर्पित योनियां हम अपने ही शरीर में एक शिश्न और आक्रामक शिश्न<br>हमारी वासना की नैतिकता को कचौटते एक योनि साथ-साथ चाहते थे<br>और हम बलात्कार को अनंतकाल के लिए स्थगित कर देते थे<br><br>ताकि हमें भाषा का सहारा ना लेना पड़े
हम अपने ही शरीर में एक शिश्न और एक योनि साथ-साथ चाहते हमारे पास बहुत कम शब्द रह गए थे<br>ताकि जिन पर हमें भाषा का सहारा ना लेना पड़े<br><br>यकीन था और उनका इस्तेमाल हम कभी-कभी करते थे
हमारे पास बहुत कम शब्द रह गए हम गूंगे हो जाने को तैयार थे<br>जिन पर उसकी भी गुंजाइश नहीं थी हर बात का जवाब हमें यकीन देना पड़ता था<br>और उनका इस्तेमाल हम कभी-कभी करते थे<br><br>हर सवाल हमसे पूछा जाता था
हर जगह, हर समय एक युद्ध चल रहा था हम गूंगे हो जाने को तैयार लड़ना नहीं चाहते थे<br>पर उसकी लेकिन भागना भी गुंजाइश हमारे वश में नहीं थी<br>हर बात का जवाब हमें देना पड़ता था<br>और हर सवाल हमसे पूछा जाता था<br><br>
हर जगहहम हारे, हर समय एक युद्ध चल रहा था<br>हम लड़ना नहीं चाहते थे<br>थके, हम पीछे हटे, हमने सारे हथियार उन्हें सौंप दिए लेकिन भागना बाक़ायदा उनसे पिटे भी हमारे वश में लेकिन हमें जाने नहीं था<br><br>दिया गया
हम हारे, हम थके, हम पीछे हटे, हमने सारे हथियार उन्हें सौंप दिए<br>परम्परागत आपत्तियों को मौक़ा देना छोड़ दिया बाक़ायदा उनसे पिटे भी<br>परम्परागत पैंतरों को उत्तेजित करना छोड़ दिया लेकिन हमें जाने नहीं दिया गया<br><br>इस तरह हम फालतू हुए
हमने परम्परागत आपत्तियों को मौक़ा देना छोड़ दिया<br>युद्ध के लिए बेकार परम्परागत पैंतरों को उत्तेजित करना छोड़ दिया<br>इस तरह तब उन्हें यकीन हुआ कि हम फालतू हुए<br><br>लड़ नहीं सकते
वे एक-दूसरे को लड़ने की सुविधा देते हुए लड़ रहे थे उनके बीच एक समझौता था जो अनन्त से चला आ रहा था हमने उसे तोड़ा इस तरह युद्ध क्षेत्र के लिए बेकार<br>तब उन्हें यकीन हुआ कि बीच हम लड़ नहीं सकते<br><br>बचे
वे एक-दूसरे को लड़ने की सुविधा देते हुए लड़ रहे थे<br>उनके बीच एक समझौता निस्सन्देह हमारा युद्ध नहीं था<br>वह जो अनन्त और हम शुरू से चला आ रहा था<br>हमने उसे तोड़ा<br>इस तरह युद्ध क्षेत्र के बीच हम बचे<br><br>इसे जानते थे
निस्सन्देह हमारा युद्ध नहीं जो भी हमसे भिड़ा छटपटाते हुए मरा क्योंकि वो लड़ने का आदी हो चला था वह<br>और हम शुरू से इसे जानते बैठे सिगरेट पीते रहते थे<br><br>
जो भी हमसे भिड़ा छटपटाते हुए मरा<br>हम दफ्तरों से, घरों से, पिताओं और क्योंकि वो लड़ने का आदी हो चला था<br>पत्नियों से भागकर सड़कों पर चले आते थे जो सूनी होती थीं और हम बैठे सिगरेट पीते बहुत सारे लोग उन पर आवाज़ किए बगैर रेंगते रहते थे<br><br>
हम दफ्तरों हर सड़क से, घरों से, पिताओं हमारा कोई न कोई रिश्ता निकल आता था और<br>पत्नियों हम कम-से भागकर<br>सड़कों पर चले आते थे<br>जो सूनी होती थीं<br>और बहुत सारे लोग उन पर आवाज़ किए बगैर रेंगते रहते -कम एक दिन उसके नाम कर देते थे<br><br>
हर सड़क हम मौत से भाग रहे थे एक दिन हमें अचानक मालूम हुआ कि वो हमारे पीछे-पीछे चल रही थी हमारा कोई न कोई रिश्ता निकल आता हर क़दम मौत के आगे था<br>और हम कम-से-कम एक दिन उसके नाम कर देते थे<br><br>उसका हर क़दम हमारे पीछे
हम मौत जीवन-भर एक भी क़दम अपनी इच्छा से भाग रहे थे<br>नहीं चले एक दिन हमें अचानक मालूम हुआ<br>कि वो हमारे कोई पीछे-पीछे चल रही थी<br>से धक्का देता था हमारा हर क़दम मौत के आगे हमें सिर्फ़ भय लगता था<br>और उसका हर क़दम हमारे पीछे<br><br>वहीं हमारी इच्छा थी
हम जीवन-भर एक भी क़दम अपनी इच्छा से क्रांतिकारी नहीं चले<br>थे हमें कोई पीछे से धक्का देता था<br>हम सिर्फ अस्थिर थे हमें सिर्फ़ भय लगता था<br>वहीं हमारी इच्छा थी<br><br>और स्थगित....
हम क्रांतिकारी नहीं थे<br>हम सिर्फ अस्थिर थे<br>और स्थगित....<br><br> ये हमने मरने के बाद जाना कि<br>वो स्थगन ही <br>
दरअसल उस समय की सबसे बड़ी क्रांति था
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits