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{{KKRachna
|रचनाकार=बशीर बद्र
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मैं ज़मीं ता आसमाँ, वो कैद आतिशदान में
धूप रिश्ता बन गई, सूरज में और इन्सान में

मैं बहुत दिन तक सुनहरी धूप खा आँगन रहा
एक दिन फिर यूँ हुआ शाम आ गई दालान में

किस के अन्दर क्या छुपा है कुछ पता चलता नही
तैल की दौलत मिली वीरान रेगिस्तान में

शक़्ल, सूरत, नाम, पहनावा, ज़बाँ अपनी जगह
फ़र्क़ वरना कुछ नहीं इन्सान और इन्सान में

इन नई नस्लों ने सूरज आज तक देखा नहीं
रात हिन्दुस्तान में है, रात पाकिस्तान में

(नवम्बर, १९९८)
</poem>