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|रचनाकार=बशीर बद्र
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दालानों की धूप, छतों की शाम कहाँ
घर से बाहर घर जैसा आराम कहाँ

बाज़ारों की चहल-पहल से रोशन है
इन आँखों में मन्दिर जैसी शाम कहाँ

मैं उसको पहचान नहीं पाया तो क्या
याद उसे भी आया मेरा नाम कहाँ

चन्दा के बस्ते में सूखी रोटी है
काजू, किशमिश, पिस्ते और बादाम कहाँ

लोगों को सूरज का धोखा होता है
आँसू बनकर चमका मेरा नाम कहाँ

दिन भर सूरज किस का पीछा करता है
रोज़ पहाड़ी पर जाती है शाम कहाँ

(१९९४-९५)
</poem>