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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
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}}
{{KKCatKavita}}<poem>चंचल भोली भाली सी
नटखट सी इतराती सी
गुल के जैसी मुस्काती सी
लहरों सी लहराती सी
हर एक हँसी पर उसके मैं
दुनिया की खुशी लुटा देता
उसकी जो माँग हुई होती
नभ के तारे भी ला देता
छीन लिये लेता सारे
मैं उसकी आँखों के मोती
काश मेरी बहना होती

कितनी खुशियों का पल होता
हम साथ साथ खेला करते
खींचा-तानी शैतानी भी
लड़ते भी, रूठा भी करते
वो मुझे मनाया करती फिर
मैं और ऐंठ जाया करता
ऊपर से आँख लाल करता
दिल ही दिल मुस्काया करता
जाओ तुमसे ना बोलेंगे
तब यह कहती, वह रोती
काश मेरी बहना होती

दुल्हन जब भी बनती बहना
हाँथों से उसे सजाता मैं
उठती डोली, दिल थाम खड़ा
नम आँखों से मुस्काता मैं
भैया भैया कहती वह फिर
सीने से लिपट जाती मेरे
मैं सहलाता फिर बालों को
जा पी के घर तू, प्रिय तेरे
और दूर चली फिर वो जाती
दिल में भारी बोझा ढोती
काश मेरी बहना होती

मेरी सूनी कलाई तड़प उठती
खाली मस्तक हा! रोता है
राखी के पावन दिन में तो
दिल मेरा टूटा होता है
मेरे मन कोमल के टुकड़ों में
आग लगी सी जाती है
जब मैं यह सोचा करता हूँ
धूं धूं कर जलती छाती है
मेरी खुशियों की तस्वीरें
काश नहीं सपना होती
काश मेरी बहना होती।

7.9.1986</poem>
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