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<poem>
अक़्स-ए-खुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
अक़्स-ए-खुशबू काँप उठती हूँ बिखरने से ना रोके कोई<br>मैं सोच कर तन्हाई मेंऔर बिखर जाऊँ तो, मुझ को ना समेटे मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई<br><br>
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तनहाई में<br>जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे चेहरे पर तेरा नाम ना पढ़ ले रेज़ा-रेज़ाइस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई<br><br>
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा रेज़ा<br>अब तो इस तरह राह से वो शख़्स गुजरता भी नहींअब किस उम्मीद पर दरवाजे से, कभी टूट कर, बिखरे झाँके कोई<br><br>
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं<br>अब किस उम्मीद पर दरवाजे से झांके कोई<br><br> कोई आहट, कोई आवाजआवाज़, कोई छाप नहीं<br>
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
</poem>
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