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शरारत / परवीन शाकिर

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<poem>
झाग उड़ाता चश्मा
मेरे बाल भिगो कर
दूर कहीं जा निकला है
लेकिन उसकी शोख़ी अब तक
मेरी माँग से मोती बनकर
क़तरा-क़तरा टपक रही है
</poem>
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