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पायन आनि परे पाँयन आय परै तो परे रहै रहैं केती करी मनुहार न झेली मनुहारि सहेली ।मान्यो मनायो न मैँ 'मतिराम ' गुमान मे ऎसी गई ऐसी भई अलबेली ।प्यारो गयो दुख मान मानि कहूँ अब कैसे रहूँ यहि राति अकेली ।आप ते आजु तौ ल्याउ मनाइ कन्हाई को मेरो न लीजियो नाम नाँव सहेली ।
'''मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
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